अखबार में पढ़ी हुई कई घटनाएँ हमें विचलित कर जाती हैं लेकिन कुछ तो अपने पीछे इतने सारे प्रश्न छोड़ जाती हैं कि उनके उत्तर खोजने में और कितने सवाल सामने उठ खड़े होते हैं। सभी प्रश्न हमारे समाज के हो रहे नैतिक अवमूल्यन से जुड़े होते हैं। हमें झकझोर देते हैं लेकिन फिर भी उन घटनाओं को पढने वालों में से कितने अभी भी पुरातन मूल्यों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं --
* कुलदीपक बेटा ही होता है।
* वंशबेल बढ़ानेवाला बेटा ही हो सकता है।
* बेटा चाहे आवारा , बदमाश या कुल के नाम को डुबाने वाला ही क्यों न हो ? लेकिन होना चाहिए।
बेटे की चाह में चाहे कितनी ही बेटियों की बलि चढ़ा दी जाय , उनको गर्भ में ही मार दिया जाय। बेटी पैदा करने वाली माँ को कभी सम्मान नहीं मिलता। बेटियां चाहे अपने घर के साथ दोनों घर की फिक्र करती रहें लेकिन वह बेटे की जगह नहीं ले सकती है।
आज सुबह सुबह जब अखबार में पढ़ा तो लगा कि उनके एक नहीं तीन तीन बेटे हैं। सभी इतना तो कमाते ही हैं कि मिल कर माता पिता का पेट पाल सकें। उन्होंने खेतों में हल चला कर बेटों को पाला होगा , पढ़ाया लिखाया भी होगा क्योंकि बड़ा बेटा फौज से रिटायर्ड है और शेष दोनों फैक्ट्री में नौकरी करते हैं।
९० वर्ष के रोशन लाल और ८५ वर्ष की उनकी पत्नी कटोरी देवी को बेटों द्वारा प्रताड़ित करने की बात रोज की थी। लेकिन इस उम्र में वे सहन करने को मजबूर थे फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि उनकी सहनशक्ति ने शायद जवाब दे दिया। वे घर से निकल कर कसबे पहुंचे और सड़क के किनारे दोनों रोते रहे और फिर अपने जीवन का फैसला ले लिया। वे एक सड़क से कुछ दूर खाली पड़े प्लाट में मृत मिले। सल्फास की गोलियों की शीशी उनके पास मिली , जिसमें दोनों ने ६ गोलियां खायीं थी। गाँव वालों ने बताया कि रोशन लाल के तीन बेटे तो थे लेकिन रोटियां देने वाला कोई न था। लम्बे समय से वे दोनों पड़ोसियों की दया पर जी रहे थे। वही उनको खाना देते थे।
जो बेटे जीते जी पेट भरने को न दे सके हो सकता है कि वे उनकी अंतिम क्रिया और तेरहवीं बड़े धूम धाम से करें और समाज के लिए कल उनका श्राद्ध भी करें लेकिन क्या जीते जी उनको भूखा रखने वालों के घर किसी को तेरहवीं और श्राद्ध में भोजन ग्रहण करना चाहिए।
मेरे विचार से तो बिलकुल भी नहीं। जिन्हें समाज की न सही अपने जनक जननी के प्रति अपने दायित्व के प्रति जिम्मेदारी न बनती हो तो ऐसे लोगों को वो पैसा अपने लिए बचा कर रखना चाहिए क्या पता कल उनका भी यही भविष्य हो ? अरे इस जगह ये तो भूल ही गयी बेटों का ये गुमान कि उनको तो जब तक जिन्दा रहेंगे सरकार पैसे देगी ही , वे किसी के मुंहताज नहीं होंगे जब कि उनके किसान पिता को कोई पेंशन देने वाला नहीं था। बेटों के रूप में जो दौलत उन्होंने तैयार की थी वह तो उन्हें धोखा दे गयी। फिर बेटे किस लिए ? ऐसे ही कितने बुजुर्ग हैं , जो रहते तो बेटे के पास हैं लेकिन बीमार होने पर बेटी के घर भेज दिए जाते हैं और बेटी उनका उपचार भी करवाती हैं और कुलदीपक कहे जाते हैं बेटे।
इस जगह हम संस्कारों की दुहाई नहीं दे सकते हैं क्योंकि मानवता कोई संस्कार नहीं बल्कि हर व्यक्ति में पलने वाली भावना है।